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संपादकीय

आंतरिक लोकतंत्र की खातिर: राजनीतिक दलों के भीतर ‘आजीवन नेता’ का विचार खारिज

24.09.22 385 Source: The Hindu, 23-09-22
आंतरिक लोकतंत्र की खातिर: राजनीतिक दलों के भीतर ‘आजीवन नेता’ का विचार खारिज

भारत निर्वाचन आयोग का राजनीतिक दलों के भीतर आजीवन नेताके विचार खारिज को करना सही है।

भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ युवजन श्रमिक रायथू कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) से जुड़े मसले पर गौर करने के दौरान किसी राजनीतिक दल में स्थायी अध्यक्षके विचार को सिरे से खारिज कर दिया है। पार्टी ने कथित तौर पर जुलाई 2022 में मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी को अपना आजीवन अध्यक्ष चुना था। निर्वाचन आयोग का कहना है कि ऐसा कोई भी कदम स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र विरोधी है। आयोग द्वारा पहले भेजे गए पत्रों के जवाब में वाईएसआरसीपी की यह प्रतिक्रिया कि वह इस मामले में आंतरिक जांचबिठाएगी, निहायत ही बेतुकी है। आयोग के विचार और आंतरिक लोकतंत्र पर उसके जोर में दम है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति को जीवन भर के लिए नेता नहीं चुना जाना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने और शासन चलाने एवं कानून बनाने की इच्छा रखने वाले किसी भी राजनीतिक दल को एक संगठन के तौर पर अपने कामकाज में पदाधिकारियों के औपचारिक एवं नियमित चुनाव को शामिल करना चाहिए। भारतीय राजनीतिक दल कई किस्म के हैं। भारतीय जनता पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टियों जैसे कुछ दल एक संरचना और कैडर पर आधारित संगठन हैं, जो एक वैचारिक लक्ष्य या सिद्धांत के लिए काम करते हैं। कांग्रेस जैसे कुछ अन्य दल हैं, जो एक मौलिक आदर्श से लैस संगठन के तले काम करने वाले अलग-अलग विचारों वाले व्यक्तियों का एक ढीला - ढाला वर्गीकृत जमावड़ा हैं। कुछ सामाजिक या क्षेत्रीय विभाजन आदि को प्रदर्शित करने वाले अन्य दल भी हैं।

तिस पर, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का एक संघीय ढांचे में विभाजन और बहुदलीय प्रणाली के चलन ने भी करिश्माईव्यक्तियों या उनके परिवारों के वर्चस्व का मार्ग प्रशस्त किया है।

यह वर्चस्व मुख्य रूप से इन पार्टियों को हासिल समर्थन की प्रकृति या उनके वित्तपोषण के ऐसे ढांचे का नतीजा है, जो किसी एक खास मंडली या परिवार द्वारा केंद्रीकृत नियंत्रण की मांग करता है। यही वजह है कि आज कई राजनीतिक दल अपने नेतृत्व को सुरक्षित रखने के लिए आंतरिक चुनाव कराने पर जोर नहीं देते हैं। अगर वे चुनाव करवाते भी हैं, तो उन चुनावों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा का अभाव होता है और ऐसा आलाकमान के प्रभुत्व की पुष्टि करने के लिए किया जाता है। कुछ मामलों में, चुनावी राजनीति के कुल जमा हासिल को सिफर मानते हुए राजनीतिक दल आंतरिक प्रतियोगिता को इस डर से अनुमति देने से कतराते हैं कि इससे नेतृत्व के मसले पर नामित करने और सर्वसम्मति बनाने की प्रक्रिया के उलट फूट पड़ सकती है। राजनीतिक दलों को चुनाव कराने की याद दिलाने और हर पांच साल में उनके नेतृत्व को नया, बदला हुआ या फिर से निर्वाचित हुआ सुनिश्चित करने के इरादे से निर्वाचन आयोग ने समय-समय पर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 ए के तहत पार्टियों के पंजीकरण के लिए जारी दिशा-निर्देशों का इस्तेमाल किया है। लेकिन निर्वाचन आयोग के पास राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को लागू करने या चुनावों को अनिवार्य करने की कोई वैधानिक शक्ति नहीं है। इस तरह की स्वतंत्र शक्ति के अभाव की वजह से ही राजनीतिक दल आयोग के आदेशों को यांत्रिक तरीके से लागू करते हैं। हालांकि, वंशवाद और आंतरिक लोकतंत्र के अभाव के सार्वजनिक बहस का विषय बन जाने से शायद जनता का दबाव ही अंतिम तौर पर राजनीतिक दलों को सही काम करने के लिए मजबूर करे।

 

प्रश्न पत्र- 2 (शासन व्यवस्था)

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