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बड़ी तादाद में विपक्षी सदस्यों की गैरहाजिरी में कानून बनाया जाना विधायिका के लिए ठीक नहीं जान पड़ता। भारत के मुख्य आपराधिक कानूनों की जगह लेने के लिए संसद ने अपने मौजूदा सत्र में तीन विधेयक पारित किये। इस दौरान 140 से ज्यादा सदस्य गैरहाजिर रहे। भले ही भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस, जो आईपीसी की जगह लेगी), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (जो सीआरपीसी की जगह लेगी) और भारतीय साक्ष्य विधेयक (एविडेंस एक्ट के बजाय) को संसदीय स्थायी समिति द्वारा जांचने-परखने के बाद पेश किया गया, तब भी पूरे देश पर होने वाले इनके असर के मद्देनजर पूरे सदन की मौजूदगी में विधायी चर्चा की जरूरत थी। नतीजतन, इन विधेयकों को लेकर उठीं बहुत-सी चिंताएं संसद में नहीं उठायी जा सकीं। नयी संहिताओं का एक बहुत स्पष्ट पहलू यह है कि धाराओं की क्रमसंख्या में बदलाव को छोड़ दें तो, मूल कानूनों की ज्यादातर सामग्री और भाषा को बरकरार रखा गया है। हालांकि, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह दावा है कि आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट की औपनिवेशिक छाप को एक विशुद्ध भारतीय कानूनी ढांचे के जरिए हटा दिया गया है। उनका यह कथन सही नहीं जान पड़ता क्योंकि इस देश में जिस तरह से पुलिस काम करती है, अपराधों की जांच होती है और लंबे मुकदमे चलते हैं, उसमें इन नयी संहिताओं से कोई बड़ा बदलाव होता नजर नहीं आता।
बीएनएस में जो सुधार हुए हैं, उनमें पुरानी पड़ चुकी राजद्रोह की धारा को हटाया जाना (यानी सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काना या उसे नफरत या अवमानना की जद में लाना अब जुर्म नहीं है), और मॉब लिंचिंग (व्यक्ति की नस्ल, जाति, समुदाय, लिंग, भाषा या जन्मस्थान के आधार पर मार डालने या गंभीर चोट पहुंचाने जैसे घृणा के अपराधों सहित) को एक अलग जुर्म के रूप में रखा जाना शामिल है। एक अन्य सकारात्मक खूबी यह है कि व्यभिचार की धारा को लिंग-निरपेक्ष (जेंडर न्यूट्रल) जुर्म के रूप में वापस लाने की पैनल की सिफारिश को सरकार ने दरकिनार कर दिया है। इस धारा को सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुका है। हालांकि, इस पर सवाल हो सकता है कि जब ‘आतंकवाद’ विशेष कानूनों के तहत दंडनीय है, तब क्या इसे आम दंड कानून में शामिल किया जाना चाहिए था। आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों का इस्तेमाल हल्के ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। प्रक्रियात्मक पहलू पर बात करें तो, कुछ स्वागतयोग्य खूबियां ये हैं कि जुर्म कहीं भी हुआ हो पुलिस अधिकारी द्वारा एफआईआर दर्ज किये जाने का प्रावधान है, और तफ्तीश में फॉरेंसिक विज्ञान और तलाशी व जब्ती में वीडियोग्राफी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की कोशिश की गयी है। एक महत्वपूर्ण विफलता यह स्पष्ट नहीं किये जाने में है कि क्या नयी फौजदारी प्रक्रिया 15 दिन की सीमा से अधिक पुलिस हिरासत की इजाजत देती है या यह महज एक प्रावधान है जो किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के 15 दिन की इस अवधि को शुरुआती 40 या 60 दिनों के भीतर कितने भी दिनों तक खींचने की इजाजत देता है। आपराधिक न्याय प्रणाली की तमाम खामियों से निपटने वाले एक कानूनी ढांचे के लिए बिना किसी दृष्टि के, कानून में संशोधन नहीं किये जा सकते।